लोकतन्त्र में व्यापक सर्वसम्मति की अनिवार्यता
Adversarial politics is an unfortunate but essential part of electoral democracy. But, in functioning democracies, this adversarial contention takes place on a substratum of consensus across parties about most issues of serious national concern. Unfortunately, during the last ten years in India, that solid ground of consensus on which the game of adversarial politics is played seems to have disappeared. The political contenders today treat each other as enemies rather than mere adversaries. This does not bode well for a democracy. In this article in Hindi, we discuss the issue and place it in the perspective of the several decades of the functioning of democratic polity in India. We draw attention to this growing deficit of consensus on the occasion of Diwali, the festival of homecoming, harmony and reconciliation.
लोकतन्त्र का आधार सर्वसम्मति में है। प्रभावी सक्षम लोकतन्त्र में अधिकतर विषयों पर, राष्ट्र की अधिकतर समस्याओं पर और उनके समाधान पर व्यापक राष्ट्रीय एकमत होता है। पक्ष-विपक्ष में असहमति का क्षेत्र सीमित होता है। राष्ट्रजीवन के गिने-चुने ही आयाम होते हैं जिनपर सभी एकमत नहीं होते। विचार-विमर्श से उन आयामों पर भी सहमति बनाने के प्रयास किये जाते हैं। जहाँ सहमति नहीं बन पाती, वहाँ भी पक्ष-विपक्ष में इतनी समझदारी तो बनती है कि बहुमत जो प्रस्ताव रख रहा है वह राष्ट्रविरोधी तो नहीं ही है। जब-जब सहमति का क्षेत्र संकुचित होता है और पक्ष-विपक्ष में यह भावना बन जाती है अथवा बना दी जाती है कि दूसरा पक्ष राष्ट्रविरोधी है, विघटनकारी है अथवा निपट मूर्ख है, जब-जब पक्ष-विपक्ष में संवादहीनता की स्थिति आ खड़ी होती है, तब-तब स्वस्थ लोकतन्त्र का चलना कठिन हो जाता है।
प्रायः तीन दशक पूर्व मा. लालकृष्ण आडवाणी जी ने लोकतन्त्र में सर्वसम्मति का अनिवार्यता का विषय हमारी एक संगोष्ठी में उठाया था। यह सर्वपक्षीय संगोष्ठी ऑबसर्वर रिसर्च फाउंडेशन के श्री ऋषिकुमार मिश्र और सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के संयुक्त तत्वावधान में १९९७ में आयोजित की गयी थी। सेंटर ने उस समय भारत में अन्न के गहन अभाव और अन्नबाहुल्य के सनातन भारतीय अनुशासन का वर्णन करते हुए अन्नं बहु कुर्वीत नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी। उसी संदर्भ में यह गोष्ठी थी। गोष्ठी में समस्त राजनीतिक पक्षों के उस समय के उच्चतम नेता उपस्थित थे। भाकपा के नेता चतुरानन मिश्र उस समय केन्द्रीय कृषि मन्त्रि थे। उन्होंने संगोष्ठी का उद्घाटन संबोधन प्रस्तुत किया। भाजपा के श्री अटलबिहारी वाजपेयी उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष थे। कांग्रेस के श्री मूपनार इस सत्र के मुख्य अतिथि थे। अन्य सत्रों में श्री मुरली मनोहर जोशी, श्री अजित सिंह, श्री डी. राजा, श्री नितीश कुमार, श्री गोवन्दाचार्य आदि विभिन्न दलों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। समापन सत्र की अध्यक्षता श्री आडवाणी जी ने की और उनके साथ श्री चन्द्रशेखर और श्री प्रणव मुखर्जी उस सत्र में उपस्थित थे।
संगोष्ठी में दिन-भर पक्ष-प्रतिपक्ष के समस्त राजनेताओं की उपस्थिति को और भूख-निवारण की समस्या पर उस दिन की सर्वसम्मति को रेखांकित करते हुए श्री आडवाणी ने अपने समापन भाषण में प्रभावी लोकतन्त्र में सर्वसम्मति की अनिवार्यता का विषय उठाया। उन्होंने कहा—
“इस संगोष्ठी में भाग लेते हुए मेरे मन में भारत के सार्वजनिक जीवन का एक और आयाम आ रहा है। हम जानते हैं कि स्वतन्त्रताप्राप्ति पर हमने लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया था। इसका एक अर्थ यह था कि विभिन्न विचारधाराओं को मानने वाले पक्ष विभिन्न विषयों पर विरोधात्मक विचार रखेंगे, वे अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप वाद-विवाद करेंगे और विभिन्न पक्षों के इस विरोधात्मक व्यवहार के मध्य देश अपने लोकतान्त्रिक मार्ग पर आगे बढ़ता जायेगा। पचास वर्षों से इस परस्पर विरोधात्मक मार्ग पर चलते हुए हम आज की स्थिति में पहुँचे हैं। परन्तु इस परस्पर विरोधात्मक व्यवहार को लोकतन्त्र का अभिन्न अंग मानते हुए भी हमें यह जानना चाहिये के भारत की समस्याएँ विकट हैं और जब तक हम कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर सर्वसम्मति नहीं बना लेते तब तक हम कहीं नहीं पहुँच पायेंगे। जब तक सब पक्षों के राजनेता भारत की मूलभूत समस्याओं और उनके समाधान के मार्ग के प्रति एकमत नहीं हो पाते तब तक हम इस देश का कुछ भला नहीं कर पायेंगे। …”
(इस संगोष्ठी की संपूर्ण कार्यवाही अंग्रेजी में यहाँ उपलब्ध है।)
आडवाणीजी उस दिन एकत्रित सभी पक्षों के राजनेताओं के मध्य लोकतन्त्र में राष्ट्र की मौलिक समस्याओं पर सर्वसम्मति की अनिवार्यता का जो विषय उठा रहे थे, वह केवल भारत के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं अपितु सब लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में मूलभूत माना जाता है। पिछले कुछ वर्षों से अमरीका में अनेक मौलिक विषयों पर वहाँ के दो प्रमुख राजनीतिक पक्षों में बड़ी खाई पैदा हुई है। सर्वसम्मति के इस अभाव पर वहाँ के प्रबुद्ध लोग सतत चिन्ता व्यक्त करते रहते हैं। दोनों पक्षों के अनेक सीनेटर मूल समस्याओं पर एकमत बनाने का प्रयास भी करते रहते हैं। अनेक ऐसे अवसर आये हैं जब विरोधात्मक राजनीति के चलते लोकतान्त्रिक व्यवस्था में गत्यावरोध-सा उपस्थित होने लगता है, और फिर दोनों पक्षों के कुछ सांसद मिलकर द्विपक्षीय समाधान निकाल लेते हैं। विचारधाराओं में अत्यन्त गहन विरोध होते हुए भी राष्ट्रीय समस्याओं का सर्वसम्मत समाधान होता रहता है।
एशिया के अनेक देशों ने तो आधुनिक पश्चिमी पद्धति का लोकतन्त्र अपनाते हुए अपने-अपने राष्ट्र की परिस्थिति के अनुरूप ऐसी औपचारिक व्यवस्थाएँ बनायी हैं जिनसे विरोधात्मक राजनीति के ऊपर राष्ट्रीय सर्वसम्मति का कोई आधार बना रहे, कोई एक सर्वसम्मानित छत्र बना रहे। उन्नीसवीं सदी के अन्त में जब जापान ने पश्चिमी पद्धति का लोकतान्त्रिक संविधान बनाया तो उससे पहले प्रायः दो दशकों तक सार्वजनिक स्तर पर यह चिन्ता होती रही कि विरोधात्मक पक्ष-विपक्ष वाली नीति वहाँ आयेगी तो समाज में व्याप्त सर्वसम्मति बिखर जायेगी। इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने सम्राट को पक्ष-विपक्ष की राजनीति से बहुत ऊपर, सब के सम्मानित, राष्ट्र की गरिमा के प्रतीक एवं सर्वसम्मति की धुरी के रूप में स्थापित कर लिया। ऐसा करने के पश्चात् ही जापान ने पश्चिमी पद्धति के लोकतन्त्र को स्वीकार किया था।
भारत में हम जापान के सम्राट के समकक्ष राष्ट्रीय सर्वसम्मति की किसी धुरी को तो स्थापित नहीं कर पाये थे। पर संविधान-निर्माताओं ने राष्ट्रपति के पद को वैसी गरिमा प्रदान करने का प्रयास किया था। कुछ सीमा तक हमारे राष्ट्रपति पक्ष-विपक्ष की राजनीति से ऊपर और दोनों के सम्मान का पात्र बने भी रहे हैं। पर हमारे संविधान में राष्ट्रपति की शक्तियाँ सीमित हैं। मूलभूत समस्याओं पर जिस प्रकार की सर्वसम्मति की अपेक्षा आडवाणीजी कर रहे थे उसका संपादन करवाने का प्रयास करना भी राष्ट्रपति के कार्यक्षेत्र में नहीं आता। इसलिये राष्ट्र में वाञ्छनीय सर्वसम्मति बनाये रखने का उत्तरदायित्व पक्ष-विपक्ष के और विशेषतः सत्तापक्ष के उच्च राजनेताओं पर ही आता है।
यह सौभाग्य का विषय है कि भारतीय लोकतन्त्र के ७७ वर्षों में हमारे राजनेताओं ने अपने इस उत्तरदायित्व का पालन करते हुए कुछ स्तर तक सर्वसम्मति बनायी रखी है। यह सर्वसम्मति वैसी तो नहीं रही जिसकी अपेक्षा आडवाणीजी ने व्यक्त की थी, जिसके आधार पर कोई भी सत्तापक्ष अन्य सब पक्षों को साथ लेकर निश्चिन्तता से राष्ट्रनिर्माण के कार्य को आगे बढ़ाता चला जा सके। पर एक न्यूनतम सहमति और पक्ष-विपक्ष के मध्य परस्पर सम्मान, संवाद एवं सहकार की भी स्थिति तो अधिकतर बनी ही रही है। इसीलिये हम इस दीर्घकाल तक लोकतन्त्र को निभा पाये हैं। इस काल में हम देश को समर्थ-विकसित देशों की श्रेणी में चाहे न ला पाये हों पर सामाजिक, सामरिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में पर्याप्त आगे बढ़े हैं। सामाजिक क्षेत्र में, विभिन्न समुदायों को सत्ता एवं समाज में समुचित प्रतिनिधित्व देने के विषय में तो हम लोकतान्त्रिक ढंग से ऐसे बड़े परिवर्तन कर पाये हैं जिन्हें करने के लिये अन्य देशों को रक्तरञ्जित क्रान्तियों से निकलना पड़ा है। यह हमारी राजनीति में बनी एक न्यूनतम सर्वसम्मति, पक्ष-विपक्ष के राजनेताओं का एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव रखने और परस्पर संवाद बनाये रखने के कारण ही हो पाया है।
इन ७७ वर्षों में कुछेक काल ऐसे भी आये हैं जब सामान्य सर्वसम्मति, परस्पर सम्मान एवं संवाद की इस मूलभूत लोकतान्त्रिक अनिवार्यता का उल्लंघन हुआ है। उन कालों में लोकतन्त्र बिखरने की स्थिति में पहुँचा है। इनमें से एक काल तब आया था जब १९६२ में चीन से मिली सामरिक पराजय के कारण देश के एक बड़े वर्ग में उस समय के प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरु के प्रति मोहभंग की स्थित बन गयी थी। उनकी नेतृत्व क्षमता पर विश्वास नहीं रहा था। उच्च राजनेताओं में परस्पर सम्मान एवं संवाद की कड़ी टूट गयी थी। परन्तु शीघ्र ही देश उस स्थिति से उबर आया था। उस उबरने में नेहरुजी के उत्तराधिकारी श्री लालबहादुर शास्त्री के सौम्य-सहज व्यक्तित्व और सबको साथ लेकर चलने की वृत्ति का बड़ा योगदान था।
राजनीति में न्यूनतम सर्वसम्मति एवं परस्पर सम्मान-संवाद की लोकतान्त्रिक अनिवार्यता का उल्लंघन फिर १९७३ से १९७७ के मध्य हुआ। उस बार तो भारतीय लोकतन्त्र एकदा बिखर ही गया था। १९७५ में आन्तरिक आपातकाल की घोषणा हुई, दो वर्ष तक सामान्य लोकतान्त्रिक व्यस्थाएँ स्थगित रहीं और विपक्ष के अनेक नेता और कार्यकर्ता काराबद्ध रहे। उस आपदा से हम भारत के सामान्य जनों की लोकतन्त्र के प्रति गहन आस्था एवं प्रतिबद्धता के कारण ही उबर पाये। १९७७ में स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव हुए। श्रीमति इंदिरा गांधी हारीं। फिर मात्र ३ वर्ष पश्चात् उन्हीं इंदिरा गांधी को भारत के लोगों ने विशाल बहुमत से जितवा दिया। यह घटनाक्रम भारत के लोगों की लोकतन्त्र की सर्वसम्मति वाली समझ का उदाहरण है। राजनैतिक पक्ष-विपक्ष का जब आपस में संवाद टूट भी जाता है, तब भी हमारे लोगो दोनों के मध्य संतुलन बनाये रखते हैं और दोनों का सम्यक आकलन करने की क्षमता बनाये रखते हैं।
लगता है कि १९७७ के पश्चात् राजनीति में न्यूनतम आवश्यक सर्वसम्मति के टूटने और पक्ष-विपक्ष में परस्पर सम्मान एवं संवाद के अभाव की स्थिति आज पुनः देश के सामने उपस्थित है। ऐसी स्थिति बनने का क्रम दस वर्ष पहले भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिन्दुत्ववादी एवं साग्रह राष्ट्रवादी विचारधारा के सत्ता में आने के साथ ही चल पड़ा था। इस सत्ता में प्रारम्भ से ही लोकतन्त्र में न्यूनतम सर्वसम्मति एवं संवाद स्थापित का प्रयास करते रहने की अनिवार्यता की उपेक्षा की गयी। ऐसी स्थापनाएँ की गयी कि इस सत्ता से पूर्व के सात दशकों में राष्ट्रनिर्माण की दिशा में कुछ नहीं हुआ। पूर्व के राजनेताओं की राष्ट्र के प्रति कोई आस्था नहीं थी, उनमें से कुछ तो राष्ट्र के प्रति विद्वेष रखते थे। उनकी विचारधारा तो भ्रामक थी ही, उन्हें प्रभावी शासन-प्रशासन चलाना भी नहीं आता। इन सब स्थापनाओं का पारंपरिक एवं नये प्रचार साधनों के माध्यम से व्यापक प्रसार किया गया।
पूर्व के राजनेताओं को भ्रमित, अक्षम एवं राष्ट्रविरोधी स्थापित करने का यह प्रयास केवल स्वाधीनता के पश्चात् के काल तक सीमित नहीं रहा। उससे पहले के स्वतन्त्रतासंग्राम के उच्चतम राजनेताओं पर, यहाँ तक कि स्वयं महात्मा गांधी पर भी इसी प्रकार के आक्षेप किये गये। किसी समाज में न्यूनतम सर्वसम्मति बनाये रखने का प्रमुख स्रोत सर्वमान्य महापुरुषों के प्रति सम्मान होता है। इस काल में हमारे महापुरुषों की सर्वमान्यता को खण्डित करने के समन्वित प्रयास हुए। इससे लोकतन्त्र के लिये अनिवार्य न्यूनतम सर्वसम्मति का आधार ही समाप्त होने लगा।
इतना ही नहीं, व्यापक स्तर पर प्रयास हुए कि सार्वजनिक सेवाओं में भर्ती में सत्ता से जुड़ी विचारधारा एवं विचारपरिवार के लोगों को वरीयता मिल पाये। शिक्षा के क्षेत्र में तो समन्वित प्रयास कर इसी एक विचारधारा एवं विचारपरिवार से इतर के लोगों को प्रायः बहिष्कृत ही कर दिया गया।
ये सब व्यवहार लोकतन्त्र के लिये न्यूनतम सर्वसम्मति को खण्डित करने वाले थे। परन्तु फिर भी दस वर्षों तक लोकतन्त्र अबाध चलता रहा, व्यापक स्तर पर टूटती हुई सर्वसम्मति का कोई आपातकाल जैसा प्रभाव नहीं दिखा। इसका एक कारण तो यही था कि संसद और अनेक राज्यों की विधायिकाओं में विपक्ष की उपस्थिति नगण्य हो गयी थी। भारत के लोगों को ऐसा लगा था कि इस एकपक्षीय सत्ता के उत्थान से देश शीघ्र ही आत्मनिर्भर सक्षम एवं विकसित देशों की श्रेणी में आ खड़ा होगा। देश के हिन्दुओं को भी लगा था कि राष्ट्र एवं समाज में अपने धर्म को अभिव्यक्ति दे पायेंगे, पूर्व के राजनेताओं के धर्मनिरपेक्षता पर अति-आग्रह के चलते यह उनके लिये प्रतिबन्धित सा हो गया था। इसलिये १० वर्षों तक उन्होंने इस विचारधारा को प्रायः एकछत्र सत्ता में बनाये रखा।
परन्तु यह निश्चित है कि न्यूनतम सर्वसम्मति के बिना और पक्ष-विपक्ष में परस्पर सम्मान एवं संवाद के बिना कोई लोकतान्त्रिक व्यवस्था बहुत देर तक चल नहीं सकती। पिछले चुनाव में विपक्ष कुछ सक्षम होकर उभरा है। इसलिये अब पिछले दस वर्षों की एकपक्षीय राजनीति एवं समाजनीति को निरन्तर चलाना सम्भव नहीं होगा। इस परिस्थिति में लोकतन्त्र को अक्षुण्ण बनाये रखना है तो पक्ष-विपक्ष में संवाद स्थापित करने के प्रयास करने पड़ेंगे। एक दूसरे को प्रति कुछ सम्मान का भाव पुनः स्थापित करने के प्रयास करने पड़ेंगे। किसी एक विचारधारा-विचारपरिवार के लोगों को सार्वजनिक जीवन एवं सार्वजनिक शिक्षा में एकाधिकार देने की प्रवृत्ति को रोकना पड़ेगा। केवल राजनीति में ही नहीं, समस्त लोकजीवन में एक न्यूनतम सर्वसम्मति, सहमति, समन्वय स्थापित करने का प्रयास करना होगा। सर्वसम्मति, सहमति, समन्वय लोकतन्त्र के अभिन्न अंग है। इनके बिना लोकतन्त्र चला नहीं करता। इस समय हमारे लोकतन्त्र में इनका अभाव है।
भारतीय लोकतन्त्र के समक्ष आज यही सबसे बड़ी चुनौती है।
डॉ. जतिन्दर कुमार बजाज
सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़, चेन्ने एवं दिल्ली
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अगस्त २४, २०२४
डॉ. जतिन्दर कुमार बजाज सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के संस्थापक-निदेशक हैं। वे भारतीय समाजविज्ञान परिषद् के अध्यक्ष और अन्य पिछड़ा जातियों के उपवर्गीकरण हेतु आयोग के सदस्य रहे हैं। २०२२ में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
यह लेख सामाजिक आर्थिक एवं संसदीय अध्ययन केन्द्र राँची की संसदीय लोकतंत्र: चुनौतियां एवं समाधान विषय पर प्रकाशित स्मारिका २०२४-२५ के लिये लिखा गया है और स्मारिका के पृष्ठ ३२-३६ पर छपा है।
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